नाटक-एकाँकी >> टीपू सुल्तान के ख़्वाब टीपू सुल्तान के ख़्वाबगिरीश कारनाड
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कन्नड़ नाटककार गिरीश कारनाड भारतीय रंगमंच के अप्रतिम नाटककार हैं। उन्होंने सिर्फ कन्नड़ ही नहीं, देश की अन्य भाषाओं में भी मौलिक नाटकों की कमी को पूरा किया है। उनके लगभग सभी नाटकों को विभिन्न भाषाओं के निर्देशकों ने खेला है। अंग्रेज़ी में ‘ड्रीम्स ऑफ टीपू सुल्तान’ नाम से विश्व-भर में चर्चित इस नाटक को भी अनेक देशों में खेला गया लेकिन भारत और पाकिस्तान में यह विशेष लोकप्रिय है।
इस नाटक में टीपू सुल्तान के जीवन के अन्तिम दिनों का चित्रण किया गया है। टीपू मैसूर का सुल्तान था। उसे भारतीय इतिहास के प्रमुख व्यक्तित्वों में स्थान प्राप्त है। उसने भारत में अंग्रेज़ी शासन का पुरज़ोर विरोध किया। इस नाटक में उसके जीवन और भारत के इतिहास की कुछ प्रमुख घटनाओं को साकार किया गया है। टीपू सुल्तान का जन्म 1753 में हुआ था। अपने पिता हैदर अली की मृत्यु के बाद 7 दिसम्बर, 1782 को वह मैसूर का शासक बना। वह खूब शिक्षित, फारसी का अच्छा ज्ञाता और लेखक भी था। उसके पत्र और टिप्पणियाँ आज भी उपलब्ध हैं। 4 मई, 1799 को युद्ध में उसकी मौत के बाद उसके विशाल पुस्तकालय को इंग्लैंड ले जाया गया था जो आज भी कैम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड और इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लन्दन का हिस्सा है। अपने जीवन का ज़्यादातर समय घोड़े की पीठ पर बितानेवाले टीपू के बारे में यह कम ही लोगों को पता है कि वह सपने भी बहुत देखता था जिनका पता उसके आसपास के कुछ लोगों को ही था। पूरे जीवन उसके बारे में किसी को पता नहीं चला। उसके आखिरी दिनों में ही इस राज़ से पर्दा उठा। टीपू सिर्फ योद्धा ही नहीं था, वह एक दृष्टिसम्पन्न राजनीतिज्ञ भी था जिसका कुछ पता हमें इस प्रेरणास्पद नाटक से चलता है।
इस नाटक में टीपू सुल्तान के जीवन के अन्तिम दिनों का चित्रण किया गया है। टीपू मैसूर का सुल्तान था। उसे भारतीय इतिहास के प्रमुख व्यक्तित्वों में स्थान प्राप्त है। उसने भारत में अंग्रेज़ी शासन का पुरज़ोर विरोध किया। इस नाटक में उसके जीवन और भारत के इतिहास की कुछ प्रमुख घटनाओं को साकार किया गया है। टीपू सुल्तान का जन्म 1753 में हुआ था। अपने पिता हैदर अली की मृत्यु के बाद 7 दिसम्बर, 1782 को वह मैसूर का शासक बना। वह खूब शिक्षित, फारसी का अच्छा ज्ञाता और लेखक भी था। उसके पत्र और टिप्पणियाँ आज भी उपलब्ध हैं। 4 मई, 1799 को युद्ध में उसकी मौत के बाद उसके विशाल पुस्तकालय को इंग्लैंड ले जाया गया था जो आज भी कैम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड और इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लन्दन का हिस्सा है। अपने जीवन का ज़्यादातर समय घोड़े की पीठ पर बितानेवाले टीपू के बारे में यह कम ही लोगों को पता है कि वह सपने भी बहुत देखता था जिनका पता उसके आसपास के कुछ लोगों को ही था। पूरे जीवन उसके बारे में किसी को पता नहीं चला। उसके आखिरी दिनों में ही इस राज़ से पर्दा उठा। टीपू सिर्फ योद्धा ही नहीं था, वह एक दृष्टिसम्पन्न राजनीतिज्ञ भी था जिसका कुछ पता हमें इस प्रेरणास्पद नाटक से चलता है।
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